जब भी ग़रीबी की चर्चा होती है तो अक्सर लोगों की सोच गांवों की तरफ़ दौड़ लगा देती है...
सभी को लगता है कि गरीबी के दर्शन सिर्फ गांवों में ही हो सकते हैं...
इस लेख के माध्यम से आज इस विषय पर मैं आपसे अपने व्यक्तिगत अनुभवों को साझा करना चाहता हूं और मुझे विश्वास है कि आपकी विचारधारा को मेरी कलम से एक नया मोड़ मिलेगा....
दृश्य_1 15000 रूपये पगार पर एक प्राइवेट कंपनी में काम करने वाला रमेश सुबह नौ बजे तक घर से निकल जाता है, दिन भर मालिक की जी-हजूरी करते हुए शाम को छ: बजे ही वापस घर लौट पाता है...
इस मंहगाई में नून-तेल-लकड़ी के अलावा दो कमरे के घर का किराया भी महिने के अंत में अट्टहास करने लगता है, बच्चों की स्कूल फीस अलग...
अक्सर पत्नी रात की रोटी भूख के हिसाब से ही गिनकर बनाती है... कभी-कभी रात की बची हुई रोटियां सुबह चाय का नास्ता बन जाती हैं और सुबह का ताजा भोजन दुपहर के लंच का रूप ले लेता है,एक लीटर पानी वाले दूध में दोनों बच्चे एक-एक छंटाक रात को सोते समय ले लेते हैं बाकी चाय में खर्च हो जाता है... जीवन की गाड़ी चले ही जा रही है...
सरकार ने गरीबों के कल्याण के लिए योजनाएं तो ढेरों बनाई हैं मगर रमेश को कंपनी से छुट्टी नहीं मिलती, एकाध बार हाफ डे मारकर उसने दौड़-धूप तो की मगर जब उसने सुना कि वो गरीब की श्रेणी में नहीं आता तो उसे समझ में नहीं आया कि इसे वह अपनी शान समझे या दुर्भाग्य...
दरअसल उसे फार्म भरते हुए बताना पड़ा था कि उसके पास एक फटफटिया भी है,अब ये अलग बात है कि काफी जद्दोजहद के बाद ये उसने अपने एक परिचित से सेकेंड हैंड में 16000/ की खरीदी थी...
चूंकि वह एक बड़ी कंपनी में काम करता है, इसलिए पत्नी कपड़ों को इस्तरी मार देती है और वह जूतों में पालिस खुद ही कर लेता है... अब रास्ते भर ठेले-खोमचे वालों से साहब-साहब सुनते वह अघाता नहीं है,कभी कभी उसे लगता है कि वह सच में बड़ा साहब हैं...
दृश्य_2 वहीं दूसरी तरफ गांव में रहकर खेती-बाड़ी का काम करने वाला महेश भोर ही में उठकर खेतों में चला जाता है, दो-चार घंटे काम करने के बाद घर आकर खाया-पिया, दो घंटे कमर सीधी करने के बाद फिर खेतों पर पहुंचा...
सरकार ने बहुत पहले ही दादाजी को गरीब जानकर पांच बीघे जमीन दे दिया था... 40-40 हजार की चार गायें और 60-70 हज़ार मुल्य की दो बढ़िया भैंसें आंगन की शोभा बढ़ाती हैं, ईश्वर की कृपा से दूध-दही की कमी नहीं होती, अभी पिछले साल ही नया ट्रैक्टर भी खरीद लिया...
जब से होश संभाला,रात की बासी रोटी कभी नहीं खाई, पुरनियां कहते थे कि बासी खाना खाने से लक्ष्मी रूठ जाती हैं,इसलिए बच्चों को भी सख्त हिदायत दे रखी है कि बासी नहीं खाना है... आखिर मोती और शेरु भी तो दुआरे बैठकर मुंह अगोरते हैं और बच्चे भी कम दयालू नहीं हैं,थाली से रोटी और भात उठाकर फेंकते हैं तो शेरू और मोती की उछल-कूद देखते ही बनती है....
चूंकि खेत पर काम करना पड़ता है इसलिए पूरा दिन उसी कुचैले गमछे और बनियान में बीत जाता है... वेशभूषा से बाजार वाले देहाती समझते ही हैं सरकार भी गरीब मानकर हर योजना पूछ-पूछकर देती रहती है... किसान होने के नाम पर कई राजनैतिक पार्टियों में भी सहयोग करने की होड़ मची रहती है...
अस्तु
पाठकों/मित्रों, लिखना तो बहुत कुछ चाहता हूं मगर आपके समय की कीमत और बोरियत का भी मुझे ध्यान रखना है... मुझे लगता है कि मैं अपनी बात इतने में ही आपको समझा चुका हूँ¡